Dastaan Ye Dil Ki

Thursday, October 22, 2015

ढलती शाम में बुझती हुई एक लौ सी हूँ मैं...

खुद को तेरी नज़रों में
देखने को हरघड़ी तड़पती हूँ मैं
सिमटने को तेरी बाहों में
पल पल मचला करती हूँ मैं

जुड़ी है हर साँस तुझसे
की बिन तेरे तिल तिल जलती हूँ मैं
बातें जो मैं कह ना सकी तुझसे
ख्वाबों में कई बार वो तुझसे किया करती हूँ मैं

ज़िन्दगी बिखरी और बेजान सी है
जो तेरे संग तेरे पास नहीं हूँ मैं
और दूर तक फैले रेगिस्तान सी है
जिसमें रुंधती हर लम्हा तेरी यादों से हूँ मैं

तुझे शायद एहसास भी नहीं
जो तू नहीं ज़िंदा नहीं एक लाश सी हूँ मैं
और कोई जीने की वजह मेरे पास है भी नहीं
अब तो ढलती शाम में बुझती हुई एक लौ सी हूँ मैं...



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